वक़्त का ये
परिंदा रुका है
कहाँ
मैं था पागल
जो इसको बुलाता
रहा
चार पैसे कमाने
मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे
याद आता रहा
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लौटता था मैं
जब पाठशाला से
घर
अपने हाथों से खाना
खिलती थी माँ
रात में अपनी
ममता के आँचल
तले
थपकीयाँ मुझे दे
के सुलाती थी
माँ ||
सोच के दिल
में एक टीस
उठती रही
रात भर दर्द
मुझको जागता रहा
चार पैसे कमाने
मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे
याद आता रहा
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सबकी आँखों में आँसू
छलक आए थे
जब रवाना हुआ था
शहर के लिए
कुछ ने माँगी
दुआएँ की मैं
खुश रहूं
कुछ ने मंदिर
में जाके जलाए
दिए ||
एक दिन मैं
बनूंगा बड़ा आदमी
ये तसव्वुर उन्हें गुदगुदाता
रहा
चार पैसे कमाने
मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे
याद आता रहा
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माँ ये लिखती
हर बार खत
में मुझे
लौट आ मेरे
बेटे तुझे है
क़सम
तू गया जबसे
परदेस बेचैन हूँ
नींद आती नहीं
भूख लगती है
कम ||
कितना चाहा ना
रोऊँ मगर क्या
करूँ
खत मेरी माँ
का मुझको रुलाता
रहा
चार पैसे कमाने
मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे
याद आता रहा
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--जसवंत सिंह