Thursday, February 28, 2013

Waqt Ka ye Parinda Ruka Hai Kha


वक़्त का ये परिंदा रुका है कहाँ
मैं था पागल जो इसको बुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा |
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लौटता था मैं जब पाठशाला से घर
अपने हाथों से खाना खिलती थी माँ
रात में अपनी ममता के आँचल तले
थपकीयाँ मुझे दे के सुलाती थी माँ ||
सोच के दिल में एक टीस उठती रही
रात भर दर्द मुझको जागता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||
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सबकी आँखों में आँसू छलक आए थे
जब रवाना हुआ था शहर के लिए
कुछ ने माँगी दुआएँ की मैं खुश रहूं
कुछ ने मंदिर में जाके जलाए दिए ||
एक दिन मैं बनूंगा बड़ा आदमी
ये तसव्वुर उन्हें गुदगुदाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||
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माँ ये लिखती हर बार खत में मुझे
लौट मेरे बेटे तुझे है क़सम
तू गया जबसे परदेस बेचैन हूँ
नींद आती नहीं भूख लगती है कम ||
कितना चाहा ना रोऊँ मगर क्या करूँ
खत मेरी माँ का मुझको रुलाता रहा
चार पैसे कमाने मैं आया शहर
गाँव मेरा मुझे याद आता रहा ||

--जसवंत सिंह
लेखक: योगेश

2 comments:

  1. वाह तिवारी जी वाह
    दिल जीत लिया इस कविता ने

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